Wednesday, 8 February 2017

आत्मा, शरीर एवं परमात्मा



आत्मा (जीव) परमपिता परमेश्वर, भगवान, परमात्मा कृष्ण का एक अंश है. चूकि जीव सत्चित आनंद भगवान का एक अंश है, जीव भी अपने आप मे सत्चित आनंद है. इसके विषय मे गीता मे कहा गया है:- 


न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥


यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता.कठोपनिषद् मे भी कहा गया है:-


 
ना जायते म्रियते वा विपस्चिन्नाय कुत्तस्चिन बभूव कस्चित I

अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥

तुलसीदास जी रामचरित मानस मे कहते है:- ईश्वर अंश जीव अविनाशी



वास्तव मे जीव माल तो शरीर पैकेजिंग है, आत्मा अज, नित्य, शाश्वत ऐवम प्राचीन होते हुए भी शरीर धारण करते ही प्रकृति, माया से अनुबंधित हो जाता है. ऐसी दशा मे वह भौतिक आनंद के संसाधानो की व्यवस्था मे लग जाता है. अध्यात्मिक चैतन्यता, जो जीव का लक्ष्य होना चाहिए, गौण हो जाती है. जीव की चैतन्यता भी सीमित होती है. जबकि परमात्मा की चैतन्यता असीम होती है. वह आनंद राशि है. वह ८४००००० योनिओ के विषय मे चैतन्य है. वह जीवधारीओ के प्रतेक शरीर मे आत्मा के साथ ही परमात्मा के रूप मे निवास करता है. माण्डूक्योपनिषत् (तृतीय मुण्डक) मे कहा गया है.

द्वा सुपरणा सयुजा सखाया समानम वृक्ष परिस्वजाते I

त्योरान्यः  पिप्पलम स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति II

अर्थात: साथ साथ रहने तथा सख्यभाव वाले दो पक्षी एक ही वृक्ष (शरीर) पर रहते है. उनमे से एक उस वृक्ष के पीप्पल (कर्म फल) का स्वाद लेता है और दूसरा (परमात्मा) निराहार रहते हुए केवल देखता रहता है. शरीर वासी जीवात्मा मोह् बश सभी इन्द्रिओ का उपभोग करता है, जबकि परमात्मा केवल द्रष्टा मात्र है. जब साधक उस प्राण रूप परमात्मा को जान लेता है तब वा अपनी आत्मा को भी उन सभी मोह बन्धनो तथा उपयगो से अलग करके परमात्मा के साथ ही योग स्थापित करता है और मोक्ष को प्राप्त करता है. अतः जीवात्मा को प्राकृतिक मोह माया को त्याग कर परमपिता परमेश्वर के प्रति अपने दायित्व का निर्वहन करना चाहिए. उनकी भक्ति ही तारनहार है. गीता मे भगवान कहते है:- 

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |

अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: || 66||




जगत गुरु आदि शंकराचार्य भी कहते है:-

  

भज गोविंदम- भज गोविंदम, गोविंदम भज मूढ़ मते I

सम प्राप्ते सन्नहिते काले, हिहि रक्षति दुकरिन करने II

 

अर्थात: हे मोहग्रशित बुद्धि वाले मित्र गोविंद को भजो, गोविंद का नाम लो, गोविंद से प्रेम करो क्योकि मृत्यु काल मे व्याकरण के नियम याद रखने से आपकी रक्षा नही हो सकती. इस प्रकार ब्रह्म परमात्मा, परमपिता परमेश्वर गोविंद ही एक आधार है जो मुक्ति के द्वार खोल सकते है अतः उनके शरणागत होइए.


हरिओम तत्‍सत् !!