महावाक्य (संस्कृत:महावाक्यम, बहुवचन: महावाक्यानी) उपनिषदो (वेदो) के महान कथन हैI ये ही आगे चल कर अद्वैत वेदान्त, द्वैत वेदान्त, शुद्धाद्वैत
वेदान्त आदि दर्शनो के आधार
स्तंभ बने, यथा:-
१) प्रग्यानाम ब्रह्म:- ब्रह्म चैतन्यता है "ऐतरेयउपनिषद्"२) अहम ब्रह्मास्मि:- मै ब्रह्म हू! "बृहदराण्यकउपनिषद्"३) ततत्वम असि (Thou Art That):- तुम वही हो "छान्दोग्य उपनिषद्"४) अयम आत्मा ब्रह्म :- "मांडूकयौपनिषद"
उपरोक्त
महावाक़्यो के माध्यम से उपनिषद् (वेद) उद्घोष करते है कि मानव देह, इन्द्रिओ ऐवम मन का संयोजन मात्र नही है.
वास्तव मे वह सुख-दुख, जन्म-मरण से रहित आत्म स्वरूप है. आत्म भाव से वह (जीव) जगत का द्रष्टा
भी है और दृश्य भी. ईश्वर की सृष्टि का आलोक और विस्तार पर्यंत उसकी पहुँच है. वह परमात्मा
परम पिता परमेश्वर, ब्रह्म का अन्शीभूत आत्मा है.
उपनिषद्
वर्णित ये महान कथन मानव जाति के लिए महाप्राण ऐवम महौषधि है जिन्हे हृदयास्थ कर मनुष्य आत्मस्थ
हो सकता है. तुलसीदास जी भी कहते है:- "ईश्वर अंश जीव अविनाशी".
फिर
भी अंश कभी भी अंशी नही हो सकता. इतना ही नही जीवात्मा शरीर धारण करते ही प्रकृति, माया से अनुबंधित हो जाता है और अपनी शुद्ध
प्रकृति को विस्मृत कर बैठता है. भौतिक आनंद के वशीभूत वह ८४००००० योनिओ मे भ्रमण करने
लगता है.
इस स्थिति
से निजात हेतु जीव कर्म-मार्ग, योग-मार्ग ऐवम ज्ञान-मार्ग मे से किसी को भी अपना सकता है. और इस योनि
भ्रमण चक्र से मुक्त हो सकता है. जीव ब्रह्म का अंश होने के कारण सत्. चित आनंद तो
हे, पर इसकी
चैतन्यता अपने आप तक सीमित है.
शारीरिक
अनुबंध के कारण अध्यात्मिक आनंद को भूल, भौतिक आनंद मे आकंठ डूबा हुआ है. इस भौतिक
आनंद से विमुख हो अध्यात्मिक आनंद की तरफ जब तक जीव उन्मुख नही होगा, उसका कल्याण नही
होगा. इसके लिए उसे अपनी स्थिति को ध्यान मे रख कर परम पिता परमेश्वर, पर ब्रह्म की शरण मे जाना होगा. तभी उसे
योनि भ्रमण चक्र से मुक्ति मिलेगी.
हरि ॐ तत्सत!!