Tuesday, 14 March 2017

सगुण ब्रह्म




 वेदो मे वर्णन किया गया है कि:-


 "एकम सद विप्रा बहुदा बदन्ति" (ऋग्वेद) - एक ही परसत्य की अलग अलग व्याख्या.
 "सर्वत्र खिलविदम ब्रह्म" (उपनिषद्) - सर्वत्र ब्रह्म ही है.
 "नेती नेती" (वृहदाराण्यक) - यह भी नही वह भी नही.
 "जन्मादेय यश्य यथा" (वेदांतसूत्र -१.१.२) - परसत्य ब्रह्म, प्रत्येक वस्तु का स्रोत है.

इश्वर: परम: कृष्ण सतचित आनंद विग्रह|
अनादिर आदिर गोविंद सर्वकारण कारणम||




इस प्रकार संपूर्ण कार्यो का कारण परसत्य ब्रह्म ही है. वह सारे विश्व का परसत्य है और जगत का सार है. वह विश्व का कारण है जिससे विश्व की उत्पत्ति होती है, जिसमे विश्व आधारित होता है और अंत मे जिसमे विलीन हो जाता है.वो एक ओर अद्वितीय है. वो स्वयं ही परम ज्ञान है और प्रकाश श्रोत की तरह रोशन है.

अब प्रश्न उठता है की ब्रह्मांड मे स्थित सभी वस्तुओ से ब्रह्म, परमसत्य कम कैसे हो सकता है? इस संसार मे सकार वम निराकार दोनो प्रकार की वस्तुवे विध्यमान है. फिर परसत्य, परमपिता परमेश्वर, मात्र एक रूप (निराकार) मे कैसे हो सकता है? इस प्रकार तो परमेश्वर अपूर्ण हो जाएगा. परमसत्य की संतान मानव, जब सस्वरूप है तो भगवान स्वरूपहीन कैसे हो सकते है. अतः जो विचारक परसत्य को निराकार रूप मे मानते है वो परमेश्वर को सीमा मे बाँधने का प्रयास करते है जो उचित नही है. - (श्वेताश्वतरोपनिषद ३.१९)

पुरुष सूक्त (ऋग्वेद) १०.९० मे भगवान विष्णु की स्तुति की गयी है. जिसमे उन्हे "कॉस्मिक मानव" के रूप मे दर्शाया गया है. पुरुष सूक्त सभी चार वेदो मे वर्णित है. इसमे विराट पुरुष के विभिन्न अंगो मे चारो वर्णो, प्राण, मन, नेत्र इत्यादि की चर्चा की गयी है.
दीया सूक्त (ऋग्वेद १०.१२९) जिसका सम्बन्ध व्रहमांड विज्ञान से हे, मे ब्रह्मांड के निर्माण के विषय मे बहुत सटीक तथ्य बताया गया है. प्रजापति परमेष्टि द्वारा रचित इस सूक्त के देवता भाववृत है. इस सूक्त का सार तत्व, जब यह कार्य सृष्टि उत्पन्न नही हुई थी. तब एक सर्व शक्तिमान परमेश्वर ऐवम जगत का कारण जगतनिर्माण की सामग्री विधमान थी. उस समय असत और शून्य नाम आकाश अर्थात जो नेत्र से देखने मे नही आता, वह भी नही था. क्यूंकि उस समय उसका व्यवहार नही था. उस काल मे सत् (सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण, युग्मप्रधान) भी नही था. परमाणु भी नही थे, तथा विराट (स्थूल जगत का वास स्थान) भी नही था. वर्तमान जगत भी अनंत शुद्ध ब्रह्म को नही ढक सकता था और उससे अधिक या अथाह भी नही हो सकता और ना वह कभी गहरा और ना उथला हो सकता है. अतः परमेश्वर अनंत है, ऐवम उसके द्वारा निर्मित जगत उसकी अपेक्षा कुछ भी नही है

ब्रह्म के विषय मे "कथा उपनिषद्" (२.२.१३) कहता है - 

नित्यो नित्यानाम, चेतना चेतनानाम I

एको बहुनाम यो विदाधति कामान II

काठौपनिषद मे भी कहा गया है:- एकोवशी सर्वभूतान्तर्मात्मा एकम रूपम बहुधा यः करोती.




इस प्रकार परसत्य परब्रह्म परमेश्वर निराकार वम साकार दोनो ही रूपो मे विधयमान है. वे अपने सृष्टि से कम कभी हो ही नही सकते. अतः परसत्य, परमपिता परमेश्वर, परमात्मा, परमब्रह्म कृष्ण के शरणागत होइए. इसी मे कल्याण है. हरिओम ततसत!
 
 



 
 



 
 

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