"सर्वत्र खिलविदम ब्रह्म" - सर्वत्र ब्र्ह्म ही है, नेहा
ना नस्ति किन्च्न - ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ हो ही नही सकता. यही बेद के अधार स्तंभ
है. ऐसी अवस्था मे ओम तत्सत (निराकार) परम सत्य की सत्ता वेदिक काल से लेकर
त्रेता तक रही. पर द्वापर काल आते आते हरि ओम तत्सत (सकार) की सत्ता स्थापित हो
गयी. इसके अनुसार हरि जो ओम है, ही सर्व सत्य सत्ता, भगवान,
परमेश्वर,
परमात्मा
है.
श्रीमद् भगवत् मे कहा गया है-
बदन्ति तत् तत्विद,
तत्वम
यज ज्ञानँ अद्वयम. (I)
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवान इति शब्दते (II)
इसे सूर्य के
दृष्टांत से भी समझा जा सकता है. सूर्य मे भी तीन पहलू होते है. उसकी किरणें,
उसकी
सतह एवं स्वयं सूर्य. इनकी तुलना क्रमश: ब्रह्म, परमात्मा एवं
स्वयं भगवान से की जा सकती है. यह सन्तो और तपस्वीयो के मनन स्वरूप निराकार से
सकार की तरफ प्रयाण है. जिससे सर्वोच्च शक्ति हरि, भगवान की श्रेष्ठता स्थापित हुई.
भगवान की व्याख्या करते हुए, पराशर
मुनि कहते है की जो छः ऐश्वर्यो से परिपूर्ण हो वह भगवान है. ये ऐश्वर्य संपूर्ण
शक्ति, सपूर्ण धन, संपूर्ण स्वास्थ, संपूर्ण ज्ञान, संपूर्ण सौंदर्य एवं संपूर्ण त्याग है. भगवान का
विग्रह सत्तचित आनंद स्वरूप है. उन्ही का अंश जीव सत तो है पर चित्त एवं आनंद से
परिपूर्ण नही है. कुछ जिवो मे चैतन्यता तो एक सीमा तक है, पर आनंद सभी जिवो मे अनुपस्थित हे. परिणाम स्वरूप सभी
चैतन्य जीव भौतिक चीज़ो मे आनंद खोजने लगते हे और अपना शाश्वत धर्म (परमसत्य
की सेवा) विस्मरण कर देते है. परिणाम स्वरूप ८४००००० योनिओ मे भ्रमण का क्रम लगा रहता है.
मानव योनि इन
योनिओ मे सबसे उत्कृष्ट योनि है. जिसमे जीव योनिओ मे भ्रमण से मुक्ति का उपाय कर
सकता हे. इसके लिए जीव को परमपिता परमेश्वर के शरण मे जाना होगा. ब्रह्मसांहिता के
अनुसार कृष्ण ही परम पिता परमेश्वर हे..
ईश्वर: परम:
कृष्ण सतचित आनंद विग्रह I
अनादिर आदिर
गोविंद, सर्व कारण कारणम II
अतः भू लोक पे
विभिन्न योनियो मे आने से मुक्ति हेतु श्री कृष्ण, गोविंद, मधुसूदन,
परमेश्वर
की भक्ति करनी होगी. वही एक आश्रय है. उनकी भक्ति ही तारणहार हे.
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